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पुत्र न हो तो कौन कर सकता है श्राद्ध?

धर्म ग्रंथों के अनुसार, पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। अगर सबसे बड़े पुत्र की भी मृत्यु हो गई हो तो उससे छोटे पुत्र को श्राद्ध का अधिकारी माना गया है। यानी परिवार में जो बड़ा भाई जीवित हो, उसे ही पिता का श्राद्ध करना चाहिए। यही नियम है।

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अगर किसी व्यक्ति का कोई पुत्र न हो तो उनके स्थान पर पत्नी भी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी भी अगर न हो तो सगा भाई और अगर वह भी न हो तो संपिंडों यानी एक ही परिवार के को श्राद्ध करना चाहिए। अगर परिवार में कोई सदस्य न बचा हो तो एक ही समान गौत्र का व्यक्ति भी श्राद्ध कर सकता है।

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पुत्र, पत्नी, भाई के न होने पर पौत्र यानी पोता या प्रपौत्र यानी पड़पोता भी श्राद्ध कर सकते हैं। ऐसा धर्म ग्रंथों में लिखा है। अगर किसी व्यक्ति का वंश का समाप्त हो गया हो तो उसकी पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

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संतान न होने पर यदि किसी बच्चे को गोद लिया है तो वह पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है। पत्नी का श्राद्ध पति तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो। पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है। कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का विधान है।

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श्राद्ध के नियमों से अनुसार, दूसरे की जमीन पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से श्राद्ध का पुण्य फल हमें न मिलकर उन लोगों की मिल जाता है जिनकी भूमि पर श्राद्ध किया जाता है। तीर्थ स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है क्योंकि ये इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। श्राद्धकर्म में भैंस के दूध का उपयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा शास्त्रों में लिखा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, श्राद्ध के दौरान गाय का घी, दूध या दही का ही उपयोग लेना चाहिए। एक बात और ध्यान रखें कि ऐसी गाय का उपयोग में लें, जिसका बच्चा हुए दस दिन से अधिक समय हो चुका है।

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श्राद्ध में ब्राह्मण का चयन सोच-विचार कर करना चाहिए, क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है। यानी श्राद्ध के लिए योग्य, कर्मकांडी व वेदों का जानकार ब्राह्मण को ही घर बुलाना चाहिए।

जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध के भोजन के लिए घर बुलाएं, उन्हें पूरे सम्मान के साथ विदा करने दरवाजे तक जाएं। ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितृ भी चलते हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाने के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

धर्म ग्रंथों के अनुसार, शाम का समय राक्षसों का होता है, इसलिए भूलकर भी कभी इस समय श्राद्ध नही करना चाहिए। श्राद्ध के लिए सुबह का समय ही अति उत्तम है। श्राद्ध में गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र (पुत्री की संतान), कुशा और तिल, इनका होना श्रेष्ठ माना गया है।

श्राद्ध कर्म करने के लिए जिस आसन पर बैठें, वो रेशम, कंबल, ऊन, लकड़ी या कुशा का होना चाहिए। भूलकर भी लोहे के आसान का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है। श्राद्ध में तुलसी के पत्ते भी जरूर चढ़ाना चाहिए। धार्मिक मान्यता है कि ऐसा करने से पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितृ हजारों साल तक संतुष्ट रहते हैं।

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श्राद्ध का भोजन कभी भी केले के पत्ते पर तो स्वयं को करना चाहिए और न ही किसी को करवाना चाहिए। श्राद्ध के भोजन के लिए सोने, चांदी, कांसे या तांबे के बर्तन उत्तम माने गए हैं। इनके अभाव में दोना-पत्तल का उपयोग किया जा सकता है।

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